जाने बंगाल के मालदा का आम ग़ालिब के पसंदीदा आमों में क्यों था
शराब के बाद अगर ग़ालिब को सबसे ज्यादा कुछ पसंद था तो वह था आम।
पश्चिम बंगाल :- इरफ़ान-ए-आज़म उर्दू अदब के अज़ीमुश्शान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब आमों के बड़े रसिया थे। वहीं, उनके एक मित्र हकीम रज़ीउद्दीन ख़ान को आम ज़रा भी नहीं भाते थे। एक दिन दोनों मित्रों में आम पर बहस हो गई। ग़ालिब जहां आम की ख़ूबियों पर ख़ूबियां बता रहे थे वहीं उनके मित्र ख़ामियों पर ख़ामियां गिनवा रहे थे। उसी दौरान हकीम रज़ीउद्दीन ख़ान ने देखा कि सड़क पर कुछ गदहे जा रहे हैं। वे गदहे सड़क किनारे पड़े आम के छिलके व गुठलियों के ढेर के पास से गुज़रे तो उसे सूंघा और छोड़ कर आगे बढ़ गए। यह देख ह़कीम साहब की आंखों में चमक आ गई। वह तो मानो उछल पड़े। ग़ालिब का ध्यान खींचते हुए फरमाया… “देखो, गदहे भी आम नहीं खाते!”
यह सुन कर ग़ालिब के चेहरे पर मुस्कान फैल गई। बड़े हाज़िरजवाब तो वह थे ही। चट जवाब दिया… “बेशक, गदहे आम नहीं खाते!”।
ग़ालिब को आम इतने पसंद थे कि वह सारी लाज-शर्म छोड़ कर बेहिचक किसी से भी आम की फरमाइश कर बैठते थे। आम का मौसम शुरू होने से पहले-पहले व पूरे मौसम तक ग़ालिब अपने चाहने वालों को बार-बार ख़त लिख कर यह ताकीद करते रहना न भूलते थे कि वे ‘आम लाना या भिजवाना न भूलें’। कलकत्ता के इमामबाड़े के निगरां को ख़त में ग़ालिब ने लिखा था ‘मैं सिर्फ अपने पेट का गुलाम ही नहीं हूं बल्कि कमजोर भी हूं। मेरी ख़्वाहिश है कि मेरी मेज़ सजी रहे और मेरी रूह को भी तस्कीन मिले। जो होशमंद हैं वो जानते हैं कि ये दोनों आमों से ही मुतमइन हो सकते हैं!’
शराब के बाद अगर ग़ालिब को सबसे ज्यादा कुछ पसंद था तो वह था आम। उनके ख़तों से पता चलता है कि आम खाने के लिए वह किसी भी घड़ी तैयार रहते थे। एक दफा मौलाना फज़ले हक़ ने आम के बारे में ग़ालिब से उनका ख्याल पूछा तो ग़ालिब ने कहा कि ‘एक तो मीठे हों और दूसरे भरपूर हों’।
एक दफा बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने ग़ालिब को लाल किले में अपने आमों के बाग़ में बुलवाया। वे दोनों बातें करते हुए आम के बागीचे में टहल रहे थे। वहां, ग़ालिब मानो पेड़ों पर आमों को निहारने में ही खो गए। यह देख बादशाह ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, यूं क्या निहार रहे हो? ग़ालिब ने कहा, मैंने बुजुर्गो से सुना है ‘दाने-दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम!’
तो…? बादशाह के इस दूसरे सवाल पे ग़लिब ने बरजस्ता कहा ‘मैं यही देख रहा हूं कि मेरा नाम किस-किस दाने पे लिखा है!’ यह सुन कर बादशाह अपनी मुस्कान रोक न पाए। उसके बाद ग़ालिब को विदा होते वक्त टोकड़ियां भर-भर कर आम का तोहफा दिया।
हरियाणा के पानीपत के रहने वाले, ग़ालिब के शागिर्द व उनकी जीवनी के लेखक ख़्वाजा अलताफ हुसैन हाली ने ‘यादगार-ए-ग़ालिब’ में ग़ालिब के ‘आम प्रेम’ को भी संजोया है। हाली व अन्य कई लोग हर साल आम के मौसम में टोकड़ी भर-भर कर ग़ालिब को तोहफे में आम भेजते थे। अंग्रेजों की कंपनी सरकार द्वारा रोक दी गई अपनी पेंशन दोबारा शुरू करवाने के सिलसिले में कलकत्ता आए ग़ालिब को तब पेंशन तो नहीं मिल पाई लेकिन आम खूब मिले। उनके मेज़बान मिर्ज़ा अली सौदागर ने उन्हें जम कर आम खिलाया। बंगाल के मालदा का आम ग़ालिब के पसंदीदा आमों में था